यीशु मसीह जी से कैसे व कितने प्रभावित थे गांधी जी?
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का योगदान सचमुच महान
हम कई ऐसे मसीही भाईयों-बहनों की कथा यहां वर्णन कर चुके हैं, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रियतापूर्वक भाग लिया था। परन्तु फिर भी हमारे कट्टर आलोचक (जो दुर्भाग्यवश स्वयं को आज के सब से बड़े राष्ट्रवादी कहलाते हैं, जबकि उनके स्वयं के पूर्वजों का कभी स्वतंत्रता आन्दोलन से कभी नाता नहीं रहा) शीघ्रतया यह मानने के लिए तैयार नहीं होंगे कि भारत को स्वतंत्र करवाने में मसीही समुदाय का भी कुछ योगदान रहा था। वे संभवतः अपनी ज़िद पर अड़े रहेंगे। वास्तव में ऐसे लोग केवल ईर्ष्या व स्वयं को सर्वोत्तम समझने के कारण करते हैं और करते रहेंगे। अब हमारे ही देश भारत में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो असंख्य तर्क दे कर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का हमें आज़ाद करवाने में उतना योगदान नहीं था, जितना कि फलां व्यक्ति का था। अब ‘फलां’ के स्थान में प्रत्येक व्यक्ति (चाहे कोई इतिहाासकार भी क्यों न हो) अपनी पसन्द के नायक को भर लेता है। कोई यहां पर शहीद भगत सिंह को लिखेगा, कोई लाला लाजपत राय को, कोई अन्य किसी स्वतंत्रता सेनानी या शहीद का नाम देगा। द्वितीय विश्व युद्ध में कमर टूट गई थी इंग्लैण्ड की इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यदि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इंग्लैण्ड व फ्ऱांस जैसे देशों की आर्थिक स्थिति ख़राब न हुई होती तो शायद अंग्रेज़ों ने भारत में अभी कई दश्क और राज्य करते रहना था। यह तो जब उन्हें इतने देशों में अपनी सरकारें चलाना कठिन लगने लगा तो वे भारत को केवल इस लिए स्वतंत्र करवाने हेतु विवश हुए थे, क्योंकि तब असंख्य भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े थे। तब यदि गांधी जैसे अन्य अनगिनत लोगों ने रोष प्रदर्शनों व अन्य तरीकों से अपना उग्र्र रूप न दिखाया होता, तो शायद अंग्रेज़ कभी भारत से जाते ही नहीं - अब तक यहीं पर रहते। उनका मुख्य उद्देश्य तो भारत में केवल अपने बड़े व्यवसाय कायम करने का था, इस धरती पर विद्यमान कच्चे माल का उपयोग करके इंग्लैण्ड ले जाना ही रहा था। ऐसे लोग यदि सचमुच कहीं यीशु मसीह की अहिंसा व क्षमा करने जैसे बेमिसाल शिक्षाओं पर चलते, तो निर्दोष भारतीय लोगों पर कभी अत्याचार न ढाते। तथाकथित राष्ट्रवादी जानबूझ कर ‘तुच्छ’ बता रहे महान गांधी जी को व्यापारियों व व्यवसायियों का ईश्वर केवल धन होता है, धर्म या अन्य किन्हीं नैतिकताओं को वे तुच्छ जानते हैं। तो जब कुछ लोग जानबूझ कर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को ही तुच्छ जान रहे हैं, तो वे मसीही समुदाय को भी कभी शीघ्रतया मान्यता देने वाले नहीं हैं। ये वही लोग हैं, जो आपको प्रायः यह कहते भी दिखाई देंगे कि भई पश्चिमी देशों से हज़ारों वर्ष पूर्व ही विज्ञान हम ने विकसित कर लिया था। यदि ऐसा है, तो उसका प्रमाण क्या है? यदि पांच-सात हज़ार वर्ष पूर्व रचित चारों वेद - ‘ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद’ व अन्य महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़; जो हमारे भारत की प्राचीन बहुमूल्य धरोहर हैं, आज तक विद्यमान हैं, तो उस समय विकसित तथाकथित विज्ञान व तक्नालोजी संबंधी दस्तावेज़ कहां चले गए। शेष सभी महत्त्वपूर्ण वेद व धार्मिक ग्रन्थ ही केवल कैसे बचे रह गए। वास्तव में ऐसा कोई विज्ञान चार-पांच हज़ार वर्ष पूर्व कभी था ही नहीं, ऐसे सभी दावे खोखले हैं। उन्हें नई पीढ़ी को किन्हीं भ्रम में नहीं डालना चाहिए। ख़ैर, यह सच्चाई जानते तो वे भी हैं, बस केवल मंचों पर माईक के सामने कुछ न कुछ अनाप-शनाप बोलने व अल्प-संख्यकों को नीचा दिखाने के लिए ऐसा कुछ कहते रहते हैं। प्रत्येक मसीही ऐसे अज्ञानी लोगों के लिए केवल प्रार्थना ही कर सकते हैं। हम सब को यह भी मालूम है कि ऐसे 70 प्रतिशत तथाकथित लोगों की अपनी संन्तानें विदेशों में उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। ऐसे लोग अपने मुंह बन्द ही रखें, तो बढ़िया रहेगा। कट्टरता हर जगह ख़तरनाक चीन की उदाहरण लेते हैं; जैसे पश्चिमी देशों की सभी आधुनिक खोजों का प्रयोग तो वह निरंतर करता है परन्तु यह मानने को तैयार नहीं है कि नित्य प्रतिदिन व प्रत्येक क्षण आज हमारे काम आने वाले 99 प्रतिशत अनुसंधान पश्चिमी देशों में ही हुए हैं तथा यह भी हकीकत है कि पश्चिमी देश ऐसे सभी अनुसंधान केवल तभी कर पाए, जब 1558 ई. में महारानी एलिज़ाबैथ ने ‘एक्ट ऑफ़ सुपरीमेसी’ पारित करके धर्म व राजनीति को अलग कर दिया था। धर्म चाहे कोई भी हो, जब वह कट्टरता की ओर बढ़ने लगता है, तो मानवता के लिए ख़तरा बन जाता है, जैसे आजकल ‘इस्लामिक स्टेट’ बनी हुई है तथा नागालैण्ड व उत्तर-पूर्वी भारत के कुछ राज्यों में अनेक तथाकथित ईसाई आतंकवादी हिंसक वारदातें कर के चर्चों में जाकर छिप जाते हैं। बिल्कुल ऐसे ही शिव सैनिक व आर.एस.एस. के कुछ कट्टरपंथी लोग अपनी-अपनी गुफ़ाओं में बिना मतलब अपने धर्म व क्षेत्र को ख़तरे के बहाने व दावे करके दहाड़ते रहते हैं - ख़ैर असल अर्थों में विज्ञान तो 1789 में फ्ऱांस में आई औद्योगिक क्रांति के पश्चात् ही विकसित होना प्रारंभ हुआ था। अतः ऐसी परिस्थितियों में हमें केवल यीशु मसीह की शिक्षाओं पर चलते हुए प्रगति पथ पर अग्रसर रहना है। यीशु मसीह संबंधी गहन गंभीर अध्ययन किया था गांधी जी ने हमारे राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी ने भी एक मिशन स्कूल से शिक्षा ग्रहण की थी, इसी लिए वह यीशु मसीह के जीवन से बहुत प्रभावित थे; चाहे गांधी जी अपने जीवन के अन्तिम समय में मसीही मिशनरियों के विरुद्ध भी हो गए थे। गांधी जी ने यीशु मसीह के बारे में गहन गंभीर अध्ययन किया था। इस अनुभाग में हम यह जानेंगे कि आख़िर हमारे राष्ट्र‘-पिता के विचार हमारे यीशु जी के बारे में कैसे थे। आप यह सब जान कर सचमुच हैरान हो जाएंगे। तथाकथित राष्ट्रवादी अगर गांधी जी से चिढ़ते हैं, तो इसी बात से चिढ़ते हैं। उन्होंने केवल मसीहियत का ही नहीं, अपितु प्रत्येक धर्म व दर्शन अर्थात फ़लसफ़े का ऐसे ही अध्ययन किया था। आप यदि यीशु मसीह संबंधी गांधी जी के विचारों को जानना चाहते हैं, तो अपनी दाईं ओर दी गई अनुसूची में से संबंधित लेख का चयन करके और अधिक जान सकते हैं। यीशु का ही अहिंसा का सिद्धांत अपनाया था गांधी जी ने महात्मा गांधी जब इंग्लैण्ड में वकालत की पढ़ाई करने तथा फिर बाद में दक्षिण अफ्ऱीका में गए थे; तब वह प्रायः अपने कुछ अंग्रेज़ मसीही मित्रों के साथ गिर्जाघर जाया करते थे। वहां पर उन्हें यीशु मसीह का अहिंसा का पाठ बहुत अच्छा लगा था। उन्होंने तभी उस सिद्धांत को अपने जीवन में लागू कर लिया था और वह अन्त तक उसी पर चलते रहे थे। एक बार जब वह फ्ऱांस की यात्रा पर गए थे, तब भी वहां के गिर्जाघर (चर्च) तथा वहां की संस्कृति देख कर अत्यंत प्रभावित हुए थे। इसी लिए वह बार-बार यीशु मसीह द्वारा कही (‘जो तेरे एक गाल पर थप्पड़ मारे, उसकी ओर दूसरा भी फेर दे’) बात दोहराते थे। यह बात उन्होंने अपनी स्व-जीवनी में बड़े खुले दिल से मानी है। आज भारत में बहुत से कट्टरपंथी यीशु मसीह की इसी बात को दोहराते तो हैं, परन्तु महात्मा गांधी के नाम से; क्योंकि वे जानबूझ कर यीशु मसीह का नाम नहीं लेना चाहते क्योंकि उन्हें ऐसा करते हुए शायद शर्म आती है। कोई माने या न माने, महात्मा गांधी जी को भारत के राष्ट-पिता का दर्जा मिलने में अन्य बातों के अतिरिक्त यीशु मसीह के क्षमा करने के इस सिद्धांत का बहुत बड़ा योगदान है। स्वतंत्रता आन्दोलनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई प्रिन्टिंग प्रैस ने भारत के स्वतंत्रता आन्दोलनों के दौरान प्रिन्टिंग प्रैस द्वारा प्रकाशित होने वाले विभिन्न समाचार पत्रों के द्वारा किए गए राष्ट्रवाद के प्रचार का योगदान सदैव अग्रणी एवं अविस्मरणीय रहा था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने आन्दोलनों में अपने समाचार-पत्र प्रकाशित किए जाने पर ही अधिक बल दिया था। इसी लिए वह सदा ही अपना कोई न कोई अख़बार अवश्य प्रकाशित किया करते थे, उसी अख़बार के द्वारा ही तब उनकी बात बहरी अंग्रेज़ सरकार के कानों तक पहुंचती थी। (भारत में विदेशी मसीही मिशनरी ही सब से पहले प्रिन्टिंग प्रैस लेकर आए थे, इस संबंधी और अधिक जानकारी हेतु कृप्या यहां पर क्लिक करें) -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]